वैचारिक स्वराज्य के लिये युवाओं में दीनदयाल
Abstract
भारत कभी विश्वगुरू था, फिर अनेक वर्षो तक गुलाम और पराधीन भी रहा। यह दोनों बातें स्वयं में विरोधाभासी हैं। जो राष्ट्र कभी विश्व का मार्गदर्शन करता रहा वह मुगलों और अंग्रेजों के अधीन कैसे रहा! वर्तमान भारत भले ही राजनीतिक रूप से स्वतंत्र दिखता हो, किन्तु वैचारिक, बौद्धिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से अभी भी वैचारिक स्वराज्य की तलाश है। वर्तमान भारत की शिक्षा, अर्थ, वाणिज्य-व्यापार, शासन-प्रशासन, न्याय, इतिहास बोध, विश्व- दृष्टि, जीवन-लक्ष्य आदि यूरोप केन्द्रित है।
हमारे चिंतन और प्रगति पर इस्लाम, ईसाइयत और अमेरिका का प्रभाव्स्पष्ट दिखता है। भारत के अनेक महापुरुषों ने भारत के स्वत्व, स्वाभिमान और स्वधर्म की बात बार-बार दुहराई है। ऐसे महापुरुषों की एक लम्बी श्रृंखला विद्यमान है। हालांकि यह भी सच है कि आजादी के संघर्ष के दिनों से लेकर आजतक अनेक महान व्यक्तित्व यूरोप, अमेरिका और रूस के विचारों सेप्रभावित और संचालित दिखाई देते हैं। स्वातंत्र्योत्तर भारत में पंडित दीनदयाल उपाध्याय का व्यक्तित्व और विचार-दर्शन एक तरफ तो भारतीयता का प्रतिनिधित्व करता है, वहीं यूरोपीय और अन्य विदेशी विचारों को चुनौती भी देता है।
मुख्य शब्द: एकात्म मानवदर्शन, स्वत्व, स्वाभिमान, स्वधर्म।